• बीजों की रिश्तेदारी की अनूठी पहल

    मध्यप्रदेश के पातालकोट में भारिया आदिवासियों के बीच बीजों की रिश्तेदारी का अनूठा कार्यक्रम चल रहा है

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    - बाबा मायाराम

    निर्माण संस्था के नरेश विश्वास कहते हैं कि पातालकोट की जमीन समतल नहीं है। ऊंची-नीची और पथरीली है। इसमें दहिया खेती ही हो सकती है, जो भारिया आदिवासी पीढ़ियों से करते आ रहे हैं। उनका देसी खेती व बीजों का ज्ञान पारंपरिक है। दहिया में ही देसी पौष्टिक बीजों की खेती हो सकती है।

    मध्यप्रदेश के पातालकोट में भारिया आदिवासियों के बीच बीजों की रिश्तेदारी का अनूठा कार्यक्रम चल रहा है। इसके तहत जो परंपरागत बीज लुप्त हो चुके हैं, उन्हें खोजने, खेतों में बोने और उनके आदान-प्रदान का करने का काम किया जाता है। मैं इस इलाके में कई बार गया हूं और यहां के लोगों से मिला हूं, और उनके बीज संग्रह को देखा है। आज इसी कहानी को बताना चाहूंगा जिससे यह जाना जा सके कि बिना पानी या कम पानी में किस तरह पौष्टिक अनाजों की खेती की जा सकती है।

    आगे बढ़ने से पहले पातालकोट के बारे में जानना उचित होगा। छिंदवाड़ा से करीब 75 किलोमीटर दूर है पातालकोट। छिंदवाड़ा जिले की ही तामिया तहसील में है पातालकोट। पातालकोट का शाब्दिक अर्थ है पाताल यानी पाताल की तरह गहराई वाली जगह और कोट यानी दुर्ग। दीवारों से घिरा हुआ। यहां दीवार से अर्थ सतपुड़ा की ऊंची-ऊंची पहाड़ियों से है। यह आकार में कटोरे सा लगता है।

    सतपुड़ा की पर्वतमाला के बीच नीचे और बहुत गहराई में बसे हैं 12 गांव और उनके ढाने (मोहल्ले)। यहां के बारे में कहा जाता है कि जमीन से नीचे होने और सतपुड़ा की आड़ी-तिरछी पहाड़ियों के कारण यहां सूरज की रोशनी देर से पहुंचती हैं।

    भारिया आदिवासी ही यहां के मुख्य बाशिंदे हैं। कम संख्या में कुछ गोंड आदिवासी भी यहां हैं। यहां के 12 गांव हैं- कारेआम रातेड़, चिमटीपुर, पलानी गैलडुब्बा, घोंघरी गुज्जाडोंगरी,घटलिंगा, गुढ़ीछतरी, घाना कोड़िया, मालनी डोमनी, जड़मांदल हर्राकछार, सेहरा पचगोल, झिरन, सूखा भण्ड हारमऊ।
    जब मैं यहां गया था तो सामाजिक कार्यकर्ता नरेश विश्वास मेरा इंतजार कर रहे थे। नरेश विश्वास, बीजों की रिश्तेदारी नामक कार्यक्रम के आयोजक थे और वे ही निर्माण संस्था के प्रमुख हैं। बैगा आदिवासी के बीच देसी बीजों पर लम्बे अरसे से काम करते हैं। पिछले साल वे मुझे सेवाग्राम में मिले थे, जहां उन्होंने आदिवासियों की खेती के बीजों की प्रदर्शनी लगाई थी।

    उन्होंने यह कार्यक्रम सिर्फ मध्यप्रदेश ही नहीं, छत्तीसगढ़ में भी चलाया जा रहा है। इसमें कोशिश की जाती है कि एक इलाके से दूसरे इलाकों में देसी बीज पहुंचे, उनका आदान-प्रदान हो और उसके साथ बीजों से जुड़ा पारंपरिक ज्ञान भी पहुंचे, जिससे देसी बीजों का प्रचार-प्रसार हो और इस खेती को बढ़ावा मिल सके।

    पातालकोट की यात्रा के दौरान हम सूखाभंड गांव से हम पैदल गैलडुब्बा पहुंचे थे। यहीं पर बीजों की रिश्तेदारी कार्यक्रम के तहत देसी बीजों की प्रदर्शनी, अनाजों के व्यंजन और सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन था। अलग-अलग गांवों से पैदल तो कुछ वाहनों से बड़ी संख्या में स्त्री-पुरुष पहुंचे थे।

    यहां पंडाल में देसी बीजों की प्रदर्शनी लगी थी। रंग-बिरंगे देसी बीज न केवल रंग-रूप में अलग थे बल्कि स्वाद में भी बेजोड़ थे। बेउरी कुटकी, भदेल कुटकी, कंगना, कंगनी, मड़िया, बाजरा, कुसमुसी, बेड़ाबाल, तुअर, काला कांग, धान, सांवा, जगनी, मक्का, के बीज थे। बल्लर ( सेमी), बरबटी, नेवा, लाल सेमा भी था।

    महुआ का भुरका था,जिसे जगनी और महुआ दोनों को कूटकर बनाया गया था। इसे लोगों ने बहुत पसंद किया। मैंने भी चखा। बेड़ा बाल की घुंघरी ( उबालकर) बनाई जाती है। कुसमुसी की दाल व बड़े बनाए जाते हैं। कुटकी का भात और बल्लर की दाल प्रमुख भोजन है। कुटकी का पेज ( एक तरह का सूप) बनाकर पीते हैं। मक्के की रोटी भी खाते हैं और भात ( चावल की तरह) भी खाया जाता है।

    प्रदर्शनी में कई प्रकार के कांदा भी थे। बड़ा कांदा, माहली कांदा, सेत कांदा, डूनची कांदा, केऊ कांदा, कडु कांदा, मोड़ो कांदा, मूसल कंद, रातेड़ कांदा। इसके अलावा यहां कई प्रकार की जड़ी-बूटियां भी थीं। सफेद मूसली, सतावर, रामदातौन, गुडवेल, चिरायता, हर्रा, बहेड़ा, आंवला, अंतमूल ( चाय की तरह पीते हैं), भिलवां इत्यादि।
    गैलडुब्बा के भगलू चालथिया ने बताया कि भारिया बरसों से आम की रोटी ( आम की गोही को चूरा कर रोटी बनाई जाती है) और बल्लर की साग खाते थे। महुआ खाते थे। बांस की करील की सब्जी और दोवे भाजी की साग पकाते थे।। कोयलार भाजी की हरी पत्तियों की सब्जी बनती है।

    वे आगे बताते हैं कि पहले हम दहिया खेती (शिफ्टिंग कल्टीवेशन) करते थे। खूब बेउर कुटकी पकती थी। मड़िया, कांग, कांगनी, जगनी, सिक्का और डंगरा बोते थे। अब दहिया पर रोक लगाई जा रही है। फिर हम कैसे जिएंगे?

    भगलू ने आगे बताया कि दहिया खेती का तरीका यह था कि बारिश के पहले ललताना व छोटी झाड़ियां काटकर उसमें आग लगा देते थे। चाहे उस जगह पर पत्थर ही क्यों न हों। जब झाड़िया जलकर राख हो जाती थीं, कांगनी फेंक देते थे। पानी गिरता था तो वह उग जाती थी। बाद में दो-तीन बार निंदाई-गुड़ाई करनी पड़ती थी और फसल पक जाती थी, बस।

    इस तरह खेती में एक-दो साल में जगह बदलनी पड़ती थी। इसमें हल चलाने की जरूरत नहीं पड़ती। इसलिए अंग्रेजी में इसे सिफ्टिंग कल्टीवेशन कहते हैं। बहुत दिनों से भारियाओं ने इसे करना छोड़ दिया है।

    निर्माण संस्था के नरेश विश्वास कहते हैं कि पातालकोट की जमीन समतल नहीं है। ऊंची-नीची और पथरीली है। इसमें दहिया खेती ही हो सकती है, जो भारिया आदिवासी पीढ़ियों से करते आ रहे हैं। उनका देसी खेती व बीजों का ज्ञान पारंपरिक है। दहिया में ही देसी पौष्टिक बीजों की खेती हो सकती है।

    नरेश विश्वास मंडला- डिंडौरी के बैगाचक के बैगा आदिवासियों, छत्तीसगढ़ के रायगढ़ के पहाड़ी कोरवाओं में दहिया खेती के जरिए पुराने देसी बीजों की खेती को बढ़ावा देते रहे हैं। जो देसी बीज लुप्त हो चुके थे, उन्हें खोजकर आदिवासियों को उपलब्ध कराते हैं। सिकिया ऐसा ही अनाज था, जिसे लोग भूल चुके थे। मंडला में फिर से लोग इसे बोने लगे हैं। इसी प्रकार, बाजरा, जिसे चिड़िया बहुत खाती हैं, लेकिन उनके पास ऐसी देसी किस्म है जिसमें रोएं होते हैं, जिससे चिड़िया नहीं खा पाती। जिससे फसल का नुकसान नहीं होता है।

    पौष्टिक अनाजों की खेती में पक्षियों का झुंड में आना और फसलों के दाने को चुगना, एक समस्या है। पर लोग यहां खेतों में मचान बनाकर रहते हैं, और जोर से आवाज लगाकर, खेतों में धोखा ( बिजूका) बनाकर पक्षियों का भगाते हैं। आदिवासियों को खेती-किसानी से जुड़ी ऐसी समस्याओं का हल आता है।

    इन सबके बावजूद अब भारिया बाहरी दुनिया से प्रभावित हैं। उन्होंने सिंचाई व रासायनिक खेती भी करना शुरू कर दिया है। उनकी जीवनशैली भी बदल रही है। नई पीढ़ी मोबाइल व मोटर साइकिल वाली है। इस कार्यक्रम में बीज प्रदर्शनी के साथ भारियाओं ने डंडा नृत्य, गेड़ी नृत्य व शैताम जैसे पारंपरिक लोकगीत भी गाए।

    कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि भारियाओं का जीवन प्रकृति से जुड़ा हुआ है। उनकी जंगल आधारित खाद्य व भोजन व्यवस्था थी जिसमें अब कमी आ रही है। एक तो जलवायु बदलाव व मौसम बदलाव हो रहा है। जंगल कम हो रहे हैं। बारिश कम हो रही है। पानी के परंपरागत स्रोत भी सूख रहे हैं। कुछ समय पहले एक गांव में भूस्खलन की खबर भी आई थी। उनकी जीवनशैली व खेती भी बदल रही है।

    लेकिन शुरूआत भर है। अगर दहिया खेती के साथ देसी बीजों की खेती को बढ़ावा दिया जाता है तो जैवविविधता के साथ पर्यावरण और आजीविका की सुरक्षा भी हो सकेगी।

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